व्यक्ति का परम धर्म

व्यक्ति का परम धर्म

व्यक्ति का परम धर्म
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घर में पुत्र जब बड़ा हो जाता है, तो संसार चलाने के लिए विवाह करते हैं। नेमिनाथ भी घर वालों के कहे अनुसार विवाह करने के लिए गए। जब बारात सज-धजकर तोरण के पास पहुँची तो देखा कि सैकड़ों पशु बँधे करुण क्रन्दन कर रहे हैं। वह दृश्य बड़ा ही हृदय विदारक था। नेमिनाथ ने बिचलित होकर पूछा- ये पशु यहाँ किसलिए हैं? उत्तर मिला- इन्हें मारकर इनका मांस बरातियों को खिलाया जाएगा। यह सुनकर नेमिनाथ का हृदय पीड़ा से भर गया। उन्होंने मन ही मन सोचा इन निरीह, अबोध पशुओं का वध किया जाएगा। अपराध तो मनुष्य करता है, इन निरीह पशुओं ने कौन सा अपराध किया है? हमारे शरीर में जरा सी भी चोट से पीड़ा होती है, लेकिन इन निरीह पशुओं का तो प्राण ही हरा जा रहा है। नेमिनाथ की पीड़ा घनीभूत हो गई। क्या हो गया है आदमी की चेतना को वह निर्दय बनकर कैसा भी घृणित और निन्दनीय कार्य कर सकता है उसके अन्तर का प्रेम, करुणा का स्रोत का क्या विल्कुल ही सूख गया है? वह मानव कैसे कहला सकता है! उसमें और पशु में फिर अन्तर हो क्या नेमिनाथ के मस्तिष्क में विचारों का ज्वार आ गया। प्रत्येक प्राणी में आत्मा होती है। कोई किसी का हनन करे, इससे बड़ा पाप और क्या हो सकता है। मनुष्य से श्रेष्ठ तो पशु ही है, जो अपनी जीभ के स्वाद के लिए किसी की हत्या तो नहीं करता। नेमिनाथ का विचार मंथन अपनी चरम सीमा तक पहुँच गया। मनुष्य विवेकशील प्राणी है। विवेकशील मनुष्य को दूसरे की बलि चढ़ा देना, शोभा नहीं देता। उनके भीतर से आवाज आई तू मानव की क्रूरता को नष्ट करने के लिए हो तो पैदा हुआ है। देख तेरे ही निमित्त तो इन मूक पशुओं को मौत के घाट उतारा जाएगा, तेरी ही बारात के भोज के लिए! उन्होंने विवाह के अपने वस्त्राभूषण उतार फेंके और मुनि धर्म की दीक्षा लेकर गिरनार की चोटियों की तरफ चले गए साधना के उस पथ पर, जिसका अनुसरण करके व्यक्ति कशाय-मुक्त होकर, कर्म बन्धन से छुटकारा पाकर आत्मा से परमात्मा बन जाता है। व्यक्ति का परम धर्म दूसरों की रक्षा करना है, प्राण लेना नहीं। आगे चलकर वे जैन समाज के बाइसवे तीर्थंकर नेमिनाथ कहलाए। धन्य हैं, संसार की नश्वरता का ज्ञान समय रहते हो गया, तो स्वयं तो मुक्त हुए ही औरों के लिए भी पथ प्रदर्शक बन गए।

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