जो सोचो वो पाओ

जो सोचो वो पाओ

आज का मनुष्य चांद-सितारों को पाने के सपने देखता है। कोई लखपति, करोड़पति बनने के सपने देख रहा है।

कोई प्रेम में सफल होने के सपने देख रहा है। कोई बच्चों की शादी-विवाह के सपने देखता है। जिधर देखें उधर ही आपको सपने ही सपने नजर आएंगे। मगर देखना तो यह है कि इनमें से कितने सपने आपसे साकार होते हैं और कितने पूरे होने से पूर्व ही दम तोड़ जाते हैं।

“सपने पूरे होना सफलता की खुशी लाती है। सपने पूरे न होना असफलता के कष्ट लाता है।”

असफलता में एक भयंकर भूत छुपा हुआ है, वह हमारे चारों ओर घूमता रहता है, और यह भूत हर प्राणी के साथ जुड़ा रहता है। इस भयंकर भूत के कारण विश्व के करोड़ों लोग अपनी मंजिल तक पहुंचने से पहले ही दम तोड़ गये। कितने ही लोग इस भूत के कारण चिंतित होकर परेशानी के दिन काट रहे हैं।

असफलता का यह भूत हर प्राणी के साथ साये की तरह चिपका हुआ है, आप अपने मन से इसे निकाल क्यों नहीं देते? क्या मोह है इसके साथ ?

जो लोग मन में पहले ही यह बात बैठा लेते हैं कि वे गाड़ी पकड़ नहीं पाएंगे, उनके जाने से पहले ही गाड़ी निकल चुकी होती है। आप क्या समझते हैं कि ऐसे लोग गाड़ी पकड़ लेंगे? नहीं, कभी नहीं। ऐसे लोग के तो गाड़ी के पास पहुंचते-पहुंचते भी गाड़ी निकल जाती हैं। फिर उन्हें यह शेर पढ़कर ही संतुष्ट होना पड़ता है।

“किस्मत की खूबी देखिए कि कहां टूटी है कमंद। जबकि दो-चार हाथ केवल बस एक बाम रह गया।” ऐसा ही होता है निराशावादी लोगों के साथ। वे सामने जाती गाड़ी को भी तेजी से नहीं पकड़ सकते।

ऐसा क्यों होता है? केवल इसलिये कि उन्होंने पहले से ही मन में यह धारणा बना ली थी कि वे गाड़ी नहीं पकड़ सकते। क्योंकि यदि आपकी मनोवृत्ति विजय की ओर है, सफलता की ओर है, तो आपको कौन मात दे सकता है? हार की बात को मन में आने ही न दें, तो फिर हार हो ही नहीं सकती, क्योंकि आप विजय की भावना से मैदान में उतरे हैं।

भावों और विचारों का रूप तो बहुत सूक्ष्म होता है, लेकिन वे फैलते बहुत तेजी से हैं। यदि दूसरा व्यक्ति सावधान न हो तो उन पर भी प्रभाव डालते हैं। यही कारण है कि. निराशावादी बातें सुनकर लोग निराश हो जाते हैं और आशावादी बातें सुनकर उनके मन में कुछ करने की भावना पैदा होती है।

बच्चों के मन में बचपन से ही हम भूतों की बातें व उनका डर बैठा देते हैं। वे बातें बड़े होने पर भी नहीं निकलती। वह डर उनका चिर साथी बन जाता है। भले ही वे कुछ भी कर लें, उनके मन से वह डर नहीं जाता। भूत के नाम से ही उनका मन कांपने लगता है। यह डर रात के समय अधिक महसूस होता है। इसका कारण है। हमारी कल्पना शक्ति एकांत में अधिक तेजी से काम करती है, फिर हम एकांत में अकेले पड़ जाते हैं, जिसका प्रभाव हमारे पूरे शरीर पर पड़ता है। दिन में तो हमारा ध्यान दुनियादारी की ओर बंटा रहता है, उस समय हमें डर और चिंता का ध्यान ही नहीं रहता। एकांत और रात के अंधेरे, हमारे शत्रु तो नहीं हैं, हम स्वयं ही इन्हें अपना शत्रु बना लेते हैं। यदि हम एकांत में कुछ अच्छे कामों के बारे में सोचें तो फिर ऐसे बुरे विचार हमारे पास कैसे आएंगे?

यदि आप सफल होना चाहते हैं तो इन बुरे विचारों को मन में आने ही न दें। भूत का डर मन से निकाल दो और यह बात मन में बैठा लो कि इन्सान से बड़ा भूत इस संसार में और कोई नहीं।”

“कुछ लोगों को देखा गया है कि वे छुट्टी के दिन अथवा खाली समय में बैठकर चिंता के सागर में डुबकियां लगाने लगते हैं। ऐसे लोग अपने लिये स्वयं रोग खरीदते हैं। यह सब उनकी अपनी भूल के कारण ही होता है, क्योंकि खाली दिमाग तो शैतान का घर होता है,उसमें अधिकतर शरारत के कीटाणु ही भरे होते हैं।”

ऐसे बुरे विचारों से बचने का एक ही तरीका है कि आप खाली समय में किसी मनोरंजन की ओर ध्यान दें, कोई अच्छी पुस्तक पढ़ें। ईश्वर की ओर ध्यान लगाकर पूजा-पाठ करें। किसी दोस्त के साथ गपशप करें या फिर परिवार के सदस्यों से बातें करें। बच्चों के साथ मन बहलाएं, क्योंकि यह बच्चे प्रभु का ही रूप होते हैं। उन मासूम बच्चों के पास छल-कपट नाम की कोई चीज नहीं होती। असल बात यह है कि इन्सान को अपने आपको व्यस्त रखना चाहिए। वह भी अच्छे कामों की ओर उसकी कल्पना में निराशा नहीं आशा ही प्रधान होनी चाहिए।

“ऐसा करने से ही आप चिंतामुक्त हो सकते हैं ”

एक बात सदा याद रखें कि किसी भी इन्सान की चिंता खरीदी हुई नहीं होती और न ही उसे कोई भेंट में देता है। चिंता तो आपके मन से ही पैदा होती है। आप स्वयं उसे पैदा होने का अवसर देते हैं, क्योंकि आप यह नहीं जानते कि यह चिंता ही विनाश की जड़ है, अनेक रोग इसी चिंता के कारण पैदा होते हैं। तभी तो हिन्दू संस्कृति में यह बात कही गई है कि “चिंता और चिता एक ही समान होती हैं ”

इन दोनों में केवल यही अंतर है कि चिंता तो जीवित मानव को दीपक की बाती की भांति धीरे-धीरे जलाती है, और चिता एक ही बार में जलाकर उसका अंत कर देती है।” ऐसी चिंता से आप यदि दूर नहीं रहते तो आप धीरे-धीरे मृत्यु के मार्ग की ओर जा रहे हैं। क्या आप अपनी मौत को स्वयं बुलावा दे रहे हैं? चिंता का अर्थ ही रोग है जो आपको के मृत्यु के द्वार तक ले जाता है। फिर इसके साथ मित्रता कैसी? चिंता को मन से गंदे कीड़े की भांति निकालकर फेंक दो।

मैं कुछ ऐसे लोगों को भी जानता हूं जिन्होंने केवल काल्पनिक नुकसान के डर से ही अपने कारोबार को तबाह कर लिया। बहुत से कारोबारी मंदे के डर से ही अपने लगे लगाए कारोबार को ठप्प कर बैठे। उन्होंने अपने आप ही सोच लिया कि अब तो मंदा आने वाला है, अब क्यों इतना परिश्रम करें, क्यों अपने कारोबार पर कर्मचारियों का बोझ डालें। यही सोचकर वे अपने कर्मचारियों को भी निकालना शुरू कर देते हैं और खाली बैठकर उस संकट की प्रतीक्षा करने लगते हैं जो अभी आया ही नहीं, बस खाली बैठे लोगों को मंदे की मार की पुरानी कहानियां सुनाने लगते हैं। ऐसे लोग खुद तो डूबते हैं परन्तु अपने दोस्तों को भी डुबाने के कारण बनते हैं। हर एक को पकड़-पकड़कर कहने लगते हैं…”भैया, मंदा आने वाला है, बच जाओ। ऐसा मंदा आएगा कि अगले पिछले हिसाब साफ हो जाएंगे, मंदे की मार बहुत बुरी होती है। अब काम को बंद रखो। जब मंदे की लहर निकल जाएगी तब ही काम-धंधा करेंगे।”

जरा सोचिए! जो चीज अभी आयी नहीं उससे डर कर पहले से घरों में छुपकर बैठ जाओ, यह पागलपन नहीं तो और क्या है?”

आप यह क्यों नहीं सोचते कि जब मंदा आएगा तब उससे भी निपट लेंगे, आज तो जो कमा सकते हैं कमा लें। आज तो अपना है, कल का क्या भरोसा, क्या हो ? हो सकता है यह कल आए या न आए, और आए भी तो हमें पाए की न पाए। इसलिए आज तो खा-पी लो, मौज उड़ा लो। आज ही अपना है। कल के बुरे दिन की कल्पना करके आज की सारी खुशियां क्यों खराब करें। जीवन हंसी-खुशी का नाम है, रोने-धोने का नहीं।

कुछ ऐसे लोग हैं जो आम जनता में भाषण करने में बहुत संकोच करते हैं। शर्म और डर के कारण वे बोल ही नहीं सकते। उन्हें हर समय यही डर लगता रहता है कि…

कहीं भाषण सुनने वाले उनका मजाक ही न उड़ाए, या फिर इनमें से कोई व्यक्ति नाराज होकर पत्थर ही मारना न शुरू कर दें। इस विषय को लेकर, ‘यूलियावार्ड’ ने वाशिंगटन इरविंग के सम्बन्ध में एक घटना लिखी है…

न्यूयार्क के प्रमुख शहरियों की ओर से ‘चार्ल्स डिकन्स’ के सम्मान में भोज दिया गया था। मैं भी कुछ अन्य महिलाओं के साथ वहीं पर मौजूद था। वाशिंगटन इरविंग उस समय सभापति का कार्य संभाले हुए थे। उन्हें अपना स्वागत भाषण करना था। जैसे ही वे अपना भाषण करने के लिये खड़े हुए, उसी समय मेरे पास बैठे कुछ लोग आपस में कानाफूसी करने लगे, वे कहने लगे-

“यह भाषण पूरा नहीं हो पाएगा।”

“पहले से ही ऐसा होता आ रहा है।”

उधर इरविंग ने बोलना शुरू कर दिया…वह अभी दो बातें ही बोल पाए थे कि उनके मित्रों ने उनका उत्साह बढ़ाने के लिये जोरदार तालियां बजायीं।

मगर इरविंग के मन में जो भय का वातावरण बना हुआ था उन्होंने समझा कि ये लोग मेरा मजाक उड़ा रहे हैं, बस यही डर उन्हें ले डूबा और घबराई हुई आवाज में बोले- “बस दोस्तो, इससे अधिक मुझे कुछ और नहीं कहना है अब में अपना भाषण यहीं समाप्त कर रहा हूँ।

यही है वह डर जो आप सबका शत्रु है। इसी डर के कारण बहुत से नेता, अभिनेता, अध्यापक अपने कामों में असफल हो गए। इस डर ने बड़े-बड़े बुद्धिमानों को पीछे फेंक रखा है, क्योंकि वे लोग पहले से ही असफलता को अपने मन में बैठा चुके होते हैं।

यदि आप सफल भाषण करना चाहते हैं तो स्टेज पर जाने से पहले मन में यह भावना पैदा करें कि सामने बैठे सब लोग आपसे अधिक बुद्धिमान नहीं हैं, हमें इन्हें बुद्धिमान बनाना है, हमें इन्हें ज्ञान देना है। बस यही समझकर अपना भाषण शुरू करें तो सफलता आप के साथ रहेगी। भय को मन से निकाल कर दूर फेंक दें। यहीं भय आपकी सफलता का शत्रु है।

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