चिंताओं का बोझ

चिंताओं का बोझ

एक विद्वान ने कहा था-

जो जहाज बंदरगाह से चलने के लिये तैयार खड़ा हो उसमें यदि जरा भी सोचने की बुद्धि हो तो वह बंदरगाह से एक इंच भी आगे न जाये। वह तो सागर से उठती हुई ऊंची लहरों को देखकर ही डर जाता, उसके मन में यह विचार आता कि यदि मैं इन लहरों के अंदर जाऊंगा तो यह मुझे डुबो देंगी और मिटाकर रख देंगी। मगर उसमें ऐसी बुद्धि कहां…?

एक किसान था। उसकी गौशाला घर से दूर नाले के पार थी। उस नाले पर एक शहतीर रखा हुआ था, उस किसान की बड़ी लड़की हर रोज नाले से पार दूध दुहने के लिये आती थी, उस शहतीर पर से गुजरकर ही वह आती-जाती थी।

एक दिन जैसे ही वह दूध निकालकर वापस आई तो जाते ही फूट-फूटकर रोने लगी ।

लोगों ने उसे बहुत समझाया और पूछा तुम बच्चों की तरह रो क्यों रही हो ?…

काफी देर तक रोने के पश्चात् वह बोली- “आज जब मैं शहतीर पर से नाला पार कर रही थी तो मुझे ध्यान आया कि जब मेरी शादी हो जाएगी तो शादी के पश्चात् मेरा एक बच्चा भी होगा। जब मैं शहतीर पर से नाला पार करूंगी तो मेरा बच्चा भी मेरे पीछे-पीछे चला आएगा, और वह बच्चा पांव फिसलते ही नीचे नाले में गिर जाएगा और पानी में बह जाएगा।”

अब जरा कल्पना कीजिए कि यह कैसी चिंता है? बच्चा अभी हुआ ही नहीं, होगा भी कैसे, जब अभी तक शादी नहीं हुई… उसकी चिंता आज ही शुरू हो गई जबकि शादी की बात भी शुरू नहीं हुई।

“हमारे बहुत से लोग ऐसी ही चिंताओं को मन में पाल लेते हैं, जिनका कि कोई सिर पांव नहीं होता। ऐसी चिंताएं मन पर बेकार का बोझ खड़ा कर देती हैं, इनसे दूर रहो और इनके बारे में सोचो मत। कल्पना का बोझ मन पर डालोगे तो कुछ भी नहीं कर पाओगे।

मेरा एक दोस्त है, वह सदा ही दुःखों और संकटों की आशंका से घिरा रहता है, जब “भी उसे देखो यही कहता रहेगा-भाई, अपनी तो किस्मत ही खराब है, जिस काम में हाथ डालते हैं, घाटा-ही-घाटा होता है, वह जितनी भी मेहनत से काम कर लें मगर लाभ कभी भी नहीं होता। शायद अब तो कभी लाभ होगा ही नहीं।

ऐसे लोगों को कभी लाभ हो भी नहीं सकता, क्योंकि उन्होंने अपने मन में यह धारणा बैठा ली है कि उन्हें कभी लाभ होना ही नहीं, पहले ही निराशा के झूले में झूलने वाले लोग आशा कहां से लाएंगे… जो बोओगे वही तो काटोगे।

अगर आपको किसी आदमी की मनोदशा का ज्ञान हो जाए, तो आप क्या बता सकेंगे कि उसका वातावरण कैसा होगा? इस दुनिया के साथ उसका सम्पर्क कैसा है? उसकी क्या हालत होने वाली है? उन सब बातों से ही पता चल जाएगा कि उसका भविष्य कैसा है? प्राणी का भविष्य क्या है? वह उन्नति करेगा अथवा पिछड़कर रह जाएगा ?

आज के वैज्ञानिक युग में लोग बीज देखकर ही बता देते हैं कि इसका पौधा कैसा होगा, और उसे फल कैसा लगेगा! इस प्रकार का मनुष्य अपने-आपको सदा अभागा ही समझता है। जो गाड़ी के चले जाने के पश्चात् स्टेशन पर पहुंचता है। जैसे ही उसे पता चलता है कि गाड़ी जा चुकी है तो… अपने माथे पर हाथ मार-मारकर अपने भाग्य को कोसता है— अरे यार ! मारे गये, अपना तो नसीब ही खोटा है, इतना जरूरी काम था, मगर गाड़ी निकल गई। नसीब को मत दोष दो । दोष तो आपका है कि आप समय पर पहुंचे नहीं, गाड़ी तो अपने समय पर आयी और चली गई, और आप अपने नसीब को ही कोसते रहे। एक महान विद्वान ज्ञानी जो हर समय खुश रहते थे, उनसे एक आदमी ने जाकर पूछा – “हे महाराज! आप हर समय कैसे खुश रहते हो?”

तभी ज्ञानी जी ने उत्तर दिया, “मैं अपने मन में कभी किसी बुरे विचार, आशंका तथा चिंता को जन्म नहीं लेने देता। मैं सदा आशावादी रहा हूं, कभी किसी कष्ट से घबराता नहीं हूं, उस कष्ट को भी प्रकृति का उपहार समझ कर गले लगा लेता हूं। बस यही है मेरी हंसी का रहस्य।”

प्राचीनकाल में मानव, होनी और अनहोनी के चक्र में फंसा रहता था, हर समय चिंता, शंका, डर उसे घेरे रखते थे, इन सब चीजों के हाथों से वह बुरी तरह सताया हुआ और दुःखी रहता था, हर समय प्राणी को यही डर रहता था कि न जाने मैं कब किसी मुसीबत में फंस जाऊं? उस युग में मानव जाति के पास कोई ऐसे साधन नहीं थे जिससे कि वे अपने आप को संकटों से बचा पाते, इसलिये उस समय तो चारों ओर डर-ही-डर था।

मानव को हर समय यही डर खाये जाता था कि कहीं यह किसी दुर्घटना का शिकार न हो जाए। राह चलते ही उस पर आकाश टूट कर गिर पड़ेगा, धरती फट जाएगी, और वह धरती में समा जाएगा, कभी कोई तूफान ही आकर उसे उड़ा ले जाएगा, अथवा कोई जंगली जानवर उसे आकर खा जाएगा।

गरीबी का डर, बीमारी का डर, बेकारी का डर, दुर्घटना का डर, गोया चारों ओर डर ही डर फैले हुए थे। एक मानव कब तक इनसे संघर्ष कर सकता था? इन सबमें सबसे अधिक प्रभावित होने वालों में से कमजोर दिल के लोग थे और इनमें से लोग भी थे जो ईश्वर की शक्ति को मानते थे। जीवन प्रभु देता है, मृत्यु भी उसके हाथ है। इसलिये मृत्यु से क्या डरना? उन लोगों ने डर को मन से निकाल दिया और सुखी हो गए।

कुछ लोग धन कमाने की चिंता में डूबे अपने अनमोल जीवन को घुन लगा लेते हैं। धन कमाना और तिजोरियों में भरना, इसी से वे अपने जीवन को अनेक रोग लगा लेते हैं।

“माया मरी न मन मरे, मर मर गये शरीर।” मन कभी नहीं मरा, न ही आदमी की संतुष्टि होती है। जैसे धन आना शुरू होता है, उसकी हवस बढ़ती जाती है। ईश्वर, उसका पेट ही तो भर सकता है, मगर उस हवस की पूर्ति कैसे करेगा? धन-संग्रह करने की यह मनोवृत्ति उन्हें मोह-माया के जाल में इस प्रकार से बांधती है कि वे बुरी तरह से जंजीरों में जकड़ जाते हैं, लोभ उन्हें अंदर ही अंदर खाए जाता है, धन कमाने के लोभ में वे ऐसे अंधे हो जाते हैं कि खाना भी समय पर नहीं खा पाते, इससे उनका शरीर दुर्बल होता है, अनेक रोग उन्हें घेर कर मृत्यु की ओर ले जाते हैं, उनकी चिंतायें उन्हें एक दिन ऐसी ले डूबती हैं कि उन्हें योग्य डॉक्टरों की जरूरत पड़ती है। ऐसे रोगों में डॉक्टर भी क्या करेंगे? ये रोग आपको प्रकृति ने नहीं दिये इसे तो आपने स्वयं ही खरीदा है…।

इसी विषय को लेकर ‘डॉ. सेल्डर’ ने जनरल शुर्ज से जुड़ी एक घटना के बारे में बताया है- यह उन दिनों की बात है जब चांसलर विले की लड़ाई चल रही थी। एक दिन सुबह के समय जैसे जनरल नींद से जागा तो उसके मन में यह डर पैदा हो गया कि—

अब उसका अंत आ चुका है। मौत उससे अधिक दूर नहीं। जनरल ने इस डर को अपने मन से निकाल देने के लिये बहुत प्रयत्न किया, परन्तु वह अपने इस कार्य में सफल नहीं हो सका। इसका परिणाम यह हुआ कि मौत का डर दिन-प्रतिदिन उसे घेरे रहा। मौत के डर के मारे वह अपने परिवार वालों को भी अंतिम पत्र लिखने बैठ गया, ताकि अपनी मृत्यु की सूचना अपने ही हाथों से उन्हें देता जाए, उसे यह भी पता था कि आज कमान वाली सेना के युद्ध के आगामी मोर्चे पर उसे जाना है। शायद उसका यह अंतिम युद्ध होगा…इस युद्ध से शायद वह जीवित वापस नहीं आएगा। उसने अपने घर वालों को पत्र लिखकर सब कुछ बता दिया, और फिर लड़ाई के मैदान की ओर चल पड़ा। उसके सैनिकों की टुकड़ी भी उनके साथ चल रही थी। वह अपने अंग रक्षकों के साथ घोड़े पर सवार होकर आगे-आगे चल रहा था, कि शत्रु के सामने जाते ही तोप का एक गोला आग उगलता हुआ उसकी ओर आया जिससे उसका एक अंगरक्षक मारा गया।

अंगरक्षक को मरते देखकर जनरल ने मन से मौत का डर पूरी तरह से समाप्त हो गया। क्योंकि जिस मौत से डर कर वह इतना भयभीत हो रहा था, उसे इतना निकट से देख लिया था कि अब उसका डर ही जाता रहा। अब उसे मौत का डर नहीं रहा था। युद्ध क्षेत्र में तो दो ही चीजें एक सैनिक को मिलती हैं. मौत या विजय ।

यही सोचकर जनरल शुर्ज ने अपने शत्रु पर एक जोरदार हमला किया, क्योंकि अब उसके मन से मौत का डर निकल चुका था, इसलिये उसमें एक नई शक्ति आ गई थी। इस शक्ति के आगे शत्रु कहां ठहर सकता था! युद्ध में जो लोग यह सोचकर कूदते हैं “विजय या मौत”, उनकी हार का तो कोई मतलब ही नहीं रहता…।

“यही हुआ जनरल के साथ। मौत का डर मन से निकलते ही वह अपने शत्रु पर भूखे शेर की भांति टूट पड़ा… यही था उसकी विजय का द्वार जो इस हमले में खुल गया…जो आदमी मौत के डर से कांप रहा था वही विजय के झंडे गाड़ कर कितना प्रसन्न हो रहा था।

ऐसे बहुत से सैनिक हैं जो यह सोचकर युद्ध में जाते हैं कि यदि मैं मरूंगा तो केवल एक ही बार तो मरूंगा एक ही गोली से ही मरूंगा, मगर न जाने वह ऐसी कौन-सी गोली है जो मेरी मौत के लिये बनी है, ठीक है वही गोली तो मुझे मारेगी, उसके सिवा तो मुझे और कोई मार नहीं सकेगा। यही सोचकर वह सैनिक मौत का डर अपने मन से निकाल देता है। मरना तो सबको ही है, मगर केवल एक बार ही तो मरना है। इस संसार में कुछ ऐसे भी मूर्ख हैं, जो मौत के डर से हर रोज ही मरते हैं, मौत से अधिक दुःखदायक मौत की कल्पना है।

“मौत तो अटल है, वह कभी भी आ सकती है।”

मगर जीवन थोड़े समय का है, इसलिये मौत की कल्पना से ही अपने जीवन के सुखों को नष्ट मत करो।

 

Leave a Comment